दुबारा या दोबारा?
ज़रा इन शब्दों को देखिए
:- दुबारा, दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफ़ा, दुपट्टा।
इन्हें अनेक जगहों में
इस तरह से भी लिखा हुआ मिलता है :- दोबारा, दोहराना, दोपहर, दोअन्नी,
दोतल्ला, दोतरफ़ा, दोपट्टा।
इनमें से सही वर्तनी
कौन-सी है?
किशोरीलाल वाजपेयी ने
हिंदी शब्द मिमांसा में विस्तार से समझाया है कि इन सबमें दु वाले रूप सही हैं,
यानी, दुबारा, दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफ़ा, दुपट्टा।
हिंदी में संख्यावाचक
शब्द बनाते समय मूल शब्द का ह्रस्वीकरण होता है –
एक –
इक – इकतारा, इकहरा, इकलौता
दो –
दु - दुबारा, दुहराना, दुपहर, दुअन्नी, दुतल्ला, दुतरफ़ा, दुपट्टा
तीन –
ति – तिपाई, तिकोना, तिरंगा
चार – च
– चवन्नी
पाँच –
पंच – पंजाब, पंचरत्न, पंचांग, पंचमेल, पंचशील
छह –
छि – छिहत्तर
सात –
सत – सतरंगा, सत्ताईस, सत्तावन
आठ –
अठ – अठन्नी
नौ - नव –
नवग्रह, नवरत्न, नवदीप
सौ –
सै – सैकड़ा
लाख –
लख - लखपति
इस नियम को ध्यान में
रखने पर दोबारा, दोपहर, एकतारा, सातरंगा, आठन्नी आदि शब्द गलत सिद्ध होते हैं।
किशोरीलाल वाजपेयी ने
हिंदी व्याकरण, वर्तनी आदि पर एक दर्जन से अधिक अत्यंत उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं।
उनके द्वारा लिखा गया हिंदी का सर्वांगीण व्याकरण, हिंदी शब्दानुशासन, कामता प्रसाद
गुरु के हिंदी व्याकरण के बाद हिंदी का सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। राहुल सांकृत्यान
ने किशोरीलाल वाजपेयी की व्याकरण प्रतिभा को देखते हुए उन्हें हिंदी का पाणिनी कहा
था, जो उचित ही है।
वाणी प्रकाशन, दिल्ली ने
अभी हाल में किशोरीलाल वाजपेयी रचनावली प्रकाशित की है जिसमें वाजपेयी जी की सभी
पुस्तकें शामिल की गई हैं। इन पुस्तकों में प्रमुख हैं –
हिंदी शब्द मिमांसा
अच्छी हिंदी
हिंदी वर्तनी
अच्छी हिंदी का नमूना
हिंदी निरुक्त
भारतीय भाषाविज्ञान
हिंदी शब्दानुशासन
संस्कृति का पाँचवा
स्तंभ
ये सभी पुस्तकें वाणी
प्रकाशन, दिल्ली से अलग से भी उपलब्ध हैं।
हिंदी व्यवसाय से जुड़े
सभी लोगों को (अनुवादक, संपादक, प्रूफ-शोधक, लेखक, अध्यापक, आदि) और साफ़–सुथरी
हिंदी लिखने में रुचि रखने वाले लोगों को ये पुस्तकें अवश्य प्राप्त कर लेना
चाहिए। छात्रों के लिए भी ये अत्यंत उपयोगी हैं।
अब सवाल उठता है कि
क्यों बहुत से लोग दुबारा आदि शब्दों को गलत लिखते हैं। इसे समझने के लिए हिंदी पर उर्दू
के प्रभाव की ओर ध्यान देना आवश्यक है। उर्दू अरबी-फ़ारसी की मिली-जुली लिपि में
लिखी जाती है। इस लिपि का नश्तलीक वाला रूप देखने में बहुत ही सुंदर है और यह उर्दू
की खास पहचान है। फिर भी उर्दू लिपि अनेक दृष्टियों से अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण है।
एक तो उसमें एक ही ध्वनि के लिए अनेक लिपि-चिह्न हैं, दूसरे कुछ आवश्यक ध्वनियों
के लिए उसमें चिह्न ही नहीं हैं। उदाहरण के लिए, उर्दू में फ़ के कम-से-कम पाँच
लिपि-चिह्न हैं, अ के दो, स के तीन, क के दो, आदि। इसका कारण यह है कि ये ध्वनियाँ
अरबी और फ़ारसी दोनों में हैं, पर दोनों की लिपियों में इनके अलग-अलग चिह्न हैं।
चूँकि उर्दू लिपि अरबी और फ़ारसी लिपि का मिला जुला रूप है, उसने इन ध्वनियों के
लिए इन दोनों ही लिपियों में मौजूद चिह्नों को अपनी लिपि में रख लिया है। दर असल अरबी-फ़ारसी बोलने वाले लोगों में
इन ध्वनियों के उच्चारण में सूक्ष्म अंतर होता है,
किंतु चूँकि उर्दू-भाषी क्षेत्रों में अरबी के विधिवत शिक्षण की कोई व्यापक
व्यवस्था नहीं है, और यही स्थिति फ़ारसी की भी है, इसलिए उर्दू भाषी इन अलग-अलग
चिह्नों का एक ही तरह से उच्चारण करते हैं। पर उर्दू परंपरा में अरबी से लिए गए शब्द अरबी के
ध्वनि-चिह्नों से लिखे जाते हैं, और फ़ारसी से लिए गए शब्द फ़ारसी के ध्वनि-चिह्न से, हालाँकि उर्दू भाषी इन सब चिह्नों का उच्चारण एक जैसे ही करते हैं।
पर दुबारा-दोबारा आदि से
उर्दू लिपि की एक अन्य कमी का संबंध है। उर्दू में स्वरों और उनकी मात्राओं को लिखने
के लिए कोई अलग व्यवस्था नहीं है, सिवाय आ और उसकी मात्रा के। मात्राएँ बनाने के
लिए इस आ तथा य और व इन दो व्यंजनों का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए हिंदी के जिन
शब्दों में मात्राएँ होती हैं, जैसे दुबारा, दुपहर आदि, उन्हें उर्दू लिपि में
दपहर, दबारा, अथवा दअवपहर, दअवबारा लिखा जाता है। स्वाभाविक है कि उर्दू-भाषी
इन्हें दोपहर, दोबारा आदि ही पढ़ते-बोलते हैं, खासकर वे जो इन शब्दों की सही
व्युत्पत्ति और इनसे संबंधित व्याकरणिक नियमों से परिचित नहीं हैं। एक अन्य उदाहरण
सिर शब्द है, जो संस्कृत के शीर्ष और शीश शब्द का तद्भव रूप है। इसे उर्दू लिपि
में लिखते समय मात्रा छूट जाती है, अर्थात इसे सर, यों लिखा जाता है।
पर सवाल अभी भी बना हुआ है
कि भले उर्दू में ऐसा होता हो, पर हिंदी में ये गलत रूप क्यों चल रहे हैं। इसे समझने
के लिए भारत में उर्दू के पठन-पाठन की निरंतर कम होती व्यवस्था को ध्यान में लेना होगा। उर्दू लिपि अब भारत से लगभग खत्म सी हो गई है और कुछ मदरसों तक सीमित रह गई है। उर्दू लेखक और पाठक बड़े पैमाने पर देवनागरी लिपि अपनाते जा रहे हैं। उर्दू
की बहुत सी पुस्तकें अब देवनागरी में छपने लगी हैं। उर्दू लेखक देख रहे हैं
कि यदि वे अपनी पुस्तकों को देवनागरी लिपि में छपवाते हैं, तो उर्दू लिपि के
मुकाबले उन्हें बहुत अधिक पाठक मिल सकते हैं और अधिक आमदनी हो सकती है।
अब उर्दू लिखने के लिए
देवनागरी लिपि भी कुछ बहुत उपयुक्त नहीं है, क्योंकि देवनागरी लिपि अत्यंत
वैज्ञानिक लिपि है और उसमें एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि चिह्न है। किंतु हमने ऊपर
देखा कि उर्दू की स्थिति बड़ी ही अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक है, उसमें एक ही ध्वनि
के लिए अनेक चिह्न हैं और मात्राएँ तो हैं ही नहीं। इसलिए जब उर्दू लेखक देवनागरी
में लिखने लगते हैं, तब उन्हें अनेक समझौते करने पड़ते हैं। अनेक चिह्नों वाली
समस्या को तो कुछ हद तक हिंदी के व्यंजनों के नीचे नुक्ता लगाकर सुलझा लिया गया
है, पर मात्राएँ न होने से हिंदी के शब्दों के जो विचित्र रूप उर्दू में बन गए हैं
(जैसे दुबारा का दबारा या दअवबारा और सिर का सर) उनसे उभरना उर्दू लेखकों के लिए अब भी
कठिन बना हुआ है। वे देवनागरी में भी उर्दू के तुड़ी-मुड़ी वर्तनी वाले शब्दों को ही चलाते हैं। इतना
ही नहीं, गज़ल आदि में इन गलत वर्तनी के साथ तुक बंदी और छंद बंदी भी कर डालते
हैं। चूँकि उर्दू एक अत्यंत मीठी और तराशी हुई भाषा है, ये गलत वर्तनी वाले शब्द
लोगों की ज़ुबानों पर चढ़ जाते हैं, और हिंदी लेखक भी, विशेषकर वे जो उर्दू लिपि
की इन खामियों से परिचित नहीं हैं, इन तुड़े-मुड़े रूपों को अपनाने लग जाते हैं।
यही कारण है कि हिंदी
में उर्दू के प्रभाव से अनेक गलत वर्तनी वाले शब्द चल पड़े हैं, यहाँ तकि अब अनेक
हिंदी लेखक इन शब्दों के व्याकरणिक दृष्टि से सही रूपों को ही गलत मानने लगे हैं!
इसका समाधान क्या है? मेरी
दृष्टि में इसका समाधान यही है कि उर्दू उर्दू लिपी में ही लिखी जानी चाहिए और
उर्दू लिपि के पठन-पाठन की व्यवस्था देश भर में की जानी चाहिए। उर्दू भी हमारे देश की
और संस्कृत परिवार की एक सुंदर भाषा है हालाँकि विभाजन के लांछन के कारण उसे काफ़ी नुकसान पहुँचा
है, और मज़बूरी में उसे अपने आपको हिंदी में समाहित करना पड़ रहा है। इससे उर्दू
का तो अहित होता ही है, हिंदी भी शुद्ध नहीं रह पा रही है, और उसकी प्रकृति इस घाल-मेल से
बिगड़ रही है। जो लोग हिंदी को प्रांजल और अभिव्यंजक रखना चाहते हैं, उन्हें उर्दू
के इस कुप्रभाव के प्रति सतर्क रहना चाहिए। इसके लिए हर हिंदी लेखक को उर्दू लिपि
का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ताकि वह हिंदी पर उर्दू लिपि के कारण हुए
कुप्रभावों को समझ सके, और इनसे बच सके। इसका एक अन्य फायदा यह होगा कि हिंदी लेखक
उर्दू में मौजूद विशाल और सुंदर साहित्य भंडार का भी आस्वादन कर सकेंगे, जिससे हिंदी भाषा पर उनकी पकड़ और भी मज़बूत हो जाएगी क्योंकि वास्तव में हिंदी और उर्दू व्याकरणिक स्तर पर एक ही भाषा हैं। उर्दू
लेखकों के लिए फायदा यह है कि उन्हें उर्दू लिपि जानने वाले हिंदी भाषियों में एक नया पाठक वर्ग मिल जाएगा, जिससे वे मज़बूरी में देवनागरी लिपि
में अपनी रचनाएँ शाया करने की आवश्यकता से बच सकेंगे। और जब उर्दू देवनागरी में लिखी नहीं जाने लगेगी, तब उर्दू के तुड़े-मुड़े अव्याकरणिक शब्द रूपों से भी हिंदी को छुटकारा मिल जाएगा।
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