श्रीदेवी की मौत को भी भुनाया चिकित्सा उद्योग के बेशर्मों ने

पिछले कुछ दिनों से सामाजिक माध्यम, अख़बार, टीवी आदि में फ़िल्म अभिनेत्री श्रीदेवी की असमय मौत की ख़बरें छाई हुई हैं। इन ख़बरों में आपने कुछ विशिष्ट प्रकार की और मासूम-सी लगने वाली "ख़बरें" भी देखी होंगी जिनमें श्रीदेवी की मौत का कारण बना "हृद-आघात" की चर्चा आई है। पाठकों को यह समझाने के बहाने कि हृद-आघात क्या होता है, इन "खबरों" में इस रोग तथा इसकी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में जानकारी दी गई है। इनमें कहीं भी किसी भी अस्पताल, या दवा कंपनी का ज़िक्र नहीं आने दिया गया है, इसलिए ये पहली नज़र में निरापद और नेक ख़बरें लगती हैं।

पर थोड़ी गहराई में जाने पर इन ख़बरों का असली मकसद स्पष्ट हो जाता है, जो है, लोगों में अपनी सेहत को लेकर डर जगाना और उनमें अचानक होने वाली मृत्यु की आशंका पैदा करना, जिसके चलते, वे स्वयं चिकित्सा माफ़िया के चंगुलों में चले आएँगे।

आखिर इन ख़बरों में कहा क्या गया है? यही न कि श्रीदेवी जैसी समृद्ध स्वस्थ और सफल महिला भी हृद रोगों के अचानक हमले से बची नहीं है, तब हमारी क्या बिसात। कभी भी हम हृद रोग की चपेट में आ सकते हैं, भले हम जितना भी संहतमंद महसूस करते हों। इसलिए तुरंत चले आइए अस्पतालों, क्लिनिकों, दवाखानों में जहाँ हमारे कमिशन खाने वाले डाक्टर और विशेषज्ञ ऋण लेकर ख़रीदी गई करोड़ों की कीमत वाली विदेश मशीनों पर आपको जाँचेंगे-परेखेंगे और आपके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाओं का नुस्खा लिखकर देंगे, जो लागत से हज़ार-हज़ार गुना दामों पर दवा की दुकानों में बिकती हैं।

इनकी पोल तब खुली जब श्रीदेवी की मौत की छानबीन कर रही टीम ने घोषणा कर दी कि यह अभिनेत्री हृद-आघात से नहीं बल्कि बाथ टब में डूब जाने से मरी है! सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कुछ पैने विश्लेषकों ने यह आशंका भी जताई है, कि उसे डावूद इब्राहिम के गिरोह ने मरवाया हो सकता है, क्योंकि फ़िल्म उद्योग और इस गिरोह के बीच चोली-दामन का संबंध है और दुबई इन दोनों ही का क्रीडांगन है।

जो भी हो, चिकित्सा उद्योग सुब्रह्मण्यम स्वामी के आरोप को तो भुना नहीं सकता है, पर जैसे ही श्रीदेवी की मृत्यु का कारण हृद आघात से बदलकर डूबना हो गया, तब तुरंत ही अखबारों में इस तरह की खबरों का तेवर भी बदल गया और वे "होटलों में डूबने से क्यों होती है मौत" पर फोकस करने लगीं! इनमें भी घुमा-फिराकर किसी गंभीर रोग को ही कारण बताया गया है और इन रोगों को समझाने के बहाने इनके महँगे और अनावश्यक इलाज़ पद्धतियों और दवाओं का ही विववरण दिया गया है।

एक समय वैद्य-हकीमों-डाक्टरों को भगवान का ही रूप माना जाता था, और वे भी मरीज़ के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखकर इलाज़ करते थे। पर अब यह पूरा उद्योग और उसके आश्रित डाक्टर-विशेषज्ञ-सलाहाकर-अस्पताल-दवा कंपनियाँ आदि का नेक्सस मरीज़ को जोंक की तरह चूसकर उससे सारी दौलत निचोड़ लेने की कला में उस्ताद हो गया है।

आप सभी ने हरियाणा के फ़ोर्टिस अस्पताल का वह किस्सा तो अख़बारों में पढ़ा ही होगा जिसमें इस अस्पताल में भर्ती हुई एक लड़की डेंगू से मर गई थी, और उसके माँ-बाप के सिर लाखों रुपए का बिल मढ़ दिया गया था। टिशू पेपर जैसी मामूली चीज़ों का दाम भी हज़ारों रुपए लगाया गया था, और दवाएँ उनके मुद्रित दामों से कई गुना दामों पर बेची गई थीं। मामला अदालत तक जा पहुँचा था और इस अस्पताल का लाइसेंस रद्द हो गया था। पर यह कोई अकेली-दुकेली घटना नहीं है, सभी अस्पतालों और डाक्टरों का यह सामान्य रवैया है।

खुद मेरे साथ घटी एक घटना मैं सुनाता हूँ। अभी हाल में मेरी पत्नी के चेहरे पर एक मुँहासा उभरा था, जो कई महीने से ठीक नहीं हो रहा था। उसने कई घरेलू इलाज़ आज़माए और फायदा न होने पर हम घर के पास के एक त्वचा-विशेषज्ञ की क्लिनिक में गए। उसने पाँच-दस हज़ार रुपयों के कई टेस्ट करवाए, जैसे एक्स-रे, खून का टेस्ट, मुँहासे के ऊतकों का विश्लेषण आदि और उसके दवाखाने की कई चक्कर लगाने के बाद (प्रत्येक बार वह हमसे चार-पाँच सौ रुपए वसूल लेता था) उसने हमें अपना निदान सुनाया, यह कि मेरी पत्नी को त्वचा कैंसर हो गया है, और तुरंत ही शल्य-क्रिया करके उस मुँहासे को निकाल देना होगा, इतना ही नहीं, उसने उस अस्पताल और शल्य-चिकित्सक का नाम भी बता दिया जहाँ हमें यह शल्य-क्रिया करानी चाहिए, और हमारी ओर से अगले हफ़्ते का दिन और समय भी निश्चित कर दिया!

कहना न होगा कि इससे हम बद-हवास हो गए, मेरी पत्नी को तो भारी डिप्रेशन ही हो गया। घर के दूसरे सदस्यों और दोस्त-मित्रों की सलाह पर हमने सेकंड ओपीनियन लेना तय किया। सौभाग्य से हमारी रिश्तेदारी में ही एक त्वचा-विशेषज्ञ था। हम उसके पास गए और सारे टेस्ट रिपोर्ट और पहले वाले चिकित्सक के निदान उसे दिखाए। उसने सब कुछ ध्यान से देखा और मेरी पत्नी के मुँहासे को भी देखा। और उसने तुरंत बता दिया कि यह कैंसर-वैंसर नहीं है बल्कि त्वचा की एलर्जी है। उसने कुछ भोजनों से परहेज़ करने व धूल-मिट्टी और सीधी धूप से चेहरे को कुछ दिन बचाए रखने की सलाह दी और कुछ साधारण दवाएँ भी लिखकर दे दीं। उसके इलाज़ से मेरी पत्नी के चेहरे का मुँहासा कुछ हफ़्तों में ही ऐसा गायब हो गया कि आज देखने पर पता तक नहीं चलता कि वह कहाँ था। यदि हम अपनी घबराहट में पहले वाले चिकित्सक के निदान को मानकर कैंसर अस्पताल में भर्ती हो जाते और ऑपरेशन करवाते, तो यह हमारे लिए बिलकुल ही त्रासदीपूर्ण अनुभव हो गया होता और मेरी पत्नी के जीवन पर उसका बड़ा ही भयानक प्रभाव पड़ता। हमें लाखों का चूना जो लगता, सो अलग।

ऐसे अनुभव मेरी जानकारी में ही कई लोगों के साथ घटी है। आपके साथ भी ज़रूर घटी होगी। तमाम चिकित्सा उद्योग को ही सिरे से बदल डालने की आवश्यकता है। इसे पूरा का पूरा सरकार को अपने अधीन ले लेना चाहिए और सभी नागरिकों को, चाहे वे राष्ट्रपति-प्रधान मंत्री या धन्ना सेठ हों, या कोई आम आदमी, समान चिकित्सा सुविधाएँ  मुहैया करानीं चाहिए। तभी इस धाँधली पर अंकुश लगेगा। सरकार को बैंकों, विमानों, डाक-तार विभाग, आदि से कदम पीछे खींचकर स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और भोजन जैसी मूलभूत इंसानी ज़रूरतें मुहैया करने पर ध्यान देना चाहिए।

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट